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कविता

गृहस्थ

बुद्धिनाथ मिश्र


प्राण-प्रतिष्ठा कर दी मैंने
सारे देवों के विग्रह में
फिर भी मूक-बधिर-अंधे बन
वे सब मंदिर में स्थापित हैं।

मैं गंगोत्री से गंगाजल
ला उनका करता हूँ अर्चन
अपने खूँटे की गायों के
घी से करता हूँ नीराजन
फिर भी उनका पलक न झपके
आँखों से ना आँसू टपके
भक्तों की बेचैन भीड़ में
मैं पिसता हूँ, वे पुलकित हैं।

मुझ गृहस्थ को दाना-पानी
जुट जाए तो सफल मनोरथ
कुछ संन्यासी होकर भी
चाहते पालकी, चाँदी का रथ
संत-रंग के कलाकार सब
ईश्वर से ज्यादा पूजित हैं।

बैलों के संग सदा सुखी थे
डीजल पीकर मरी किसानी
भूत-प्रेत से ज्यादा डरती
टोपी से मित्रो मरजानी
माटी की मूरतें मौन हैं
चुप हैं सारे देवी-देवा
श्रद्धा के कच्चे धागे पर
चलनेवाले लोग व्यथित हैं।

 


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